श्री खिमेल तीर्थ राजस्थान प्रांत के गोड़वाड़ क्षेत्र की बाली तहसील में उत्तर-पश्चिम रेलवे के खिमेल रेलवे स्टेशन से १ कि. मी., रानी से ५ कि. मी. और फालना से १२ कि. मी. दूर स्थित है | राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. १४ से १६ कि. मी. दूर, मीठड़ी नदी के किनारे गांव के मध्य जीर्णोध्दारित श्वेत पाषाण से निर्मित सुंदर कलाकृति युक्त भव्य शिखरबंध जिनप्रासाद मे नूतन प्रतिष्ठा महोत्सव में वीर नि. सं. २५३८ वि सं. २०६८, वैशाख सुदि ५, गुरुवार, दि. २६.४.२०१२ को गच्छाधिपति आ. श्री नित्यानंदसूरिजी, ४४वें वर्षीतप के तपस्वी आ. श्री वसंतसूरजी आ.ठा. की निश्रा में श्वेतवर्णी, पद्मसनस्थ, लगभग ७५ सें.मीं. ऊची अप्रतिम प्रतिमा को पुनः स्थापित किया गया | प्राचिन शिलालेखो में खिमेल का नाम है 'सिहवल्ली' | धरातल की दृष्टि से देखा जाय तो गाव मिट्टी के एक टिले पर स्थित है |इस टिले के निचे प्राचिन 'सिहवल्ली' अथवा अन्य कोई गाव अवस्थित अवश्य रहा होगा, इसका प्रमाण खुदाई से ही संभव है खुदाई से विशाल आकार की ईटें उपलब्ध होना इस बात का पुष्ट संकेत है |
जैन तीर्थ सर्व संग्रह ग्रंथ के अनुसार खिमेल ११वीं सदी से भीअधिक प्राचिन पर अंकित लेखानुसार , वि. सं. ११४९ में लीलाशाह द्वारा इस मंदिर का निर्माण हुआ मु श्री शांतिनाथ प्रभु की प्रतिमा डेढ़ हाथ सपरिकर व् इसकी अंजनशलाका प्रतिष्ठा वि. सं. ११३४ वैशाख शुक्ल १० के दिन आ श्री हेमसुरजी के हाथो सम्पन हुई थी। मूलनायक की दायी ओर की प्रतिमा ( एक फुट ऊँची ) पर , वि. सं. १३५३ वैशाख सुदी ११ का लेख है, इसकी प्रतिष्ठा नारलाईरत्न आ. श्री विजयसेन्सुरीजी ने की है , गर्भद्वार की बायीं ओर ढाई हाथ प्रणाम की काउसग्ग मुद्रा की प्राचीन व् सुन्दर प्रतिमा स्थापित है , जिस पर लेप किया हुआ है , सामने वि. सं. २०५५ माघु शु १४ की प्रतिष्ठित एक नयी काउसग्गिया प्रतिमा भी विराजमान है। १६ वीं शताब्दी तक यह गांव जिसके आधिपत्य में रहा , इसका कोई प्रणाम नहीं मिलता , मगर मेवाड़ के महाराणाओं के अभिलेखों से ज्ञात होता है की समस्त गोडवाड़ प्रदेश उनके अधीन था और उनके निर्देश में यह गांव 'सिंदल ' राजपूतो के कब्जे में था। वि. सं. १६२१ में मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा श्री उदयसिंहजी ने उदयपुर के एक मुसाहिब श्री वेनीसिंहजी मेहता (मुथ्था) को गांव का पट्टा खिमेल सहित देकर यहां भेजा। उस समय खिमेल में जयमल सिंदल का प्रभुत्व था। श्री वेनीसिंहजी मेहता के साथ लड़ाई में जयमल सहित सभी सिंदली सरदार वीरगति को प्राप्त हुए। शौर्य के कारण यह खिमेल मेहतों की अधीनता में आया। बाद में तीन पीढ़ी तक यह कब्ज़ा रहा।
खिमेल के मेहता आधे गांव के मालिक थे और आधा गांव खालसा में था। वि. सं. १७४९ में मेड़तिया श्री गोपीनाथजी को शौर्य प्रदर्शन स्वरूप , २६ हजार की रेखा जागीर उदयपुर महाराणा द्वारा प्रदान की गई , परन्तु खिमेल का आधा भाग मेहता की अधीनता में ही रखा गया। इस बात का उल्लेख वि. सं. १७७० की रकबा बही में देखा जा सकता है। जब १८५९ में गोडवाड़ प्रदेश मारवाड़ नरेश की अधीनता में आया और वि. सं. १८६८ में बिशनसिंहजी मेड़तिया के पुत्र श्री तेजसिंहजी को चाणोद पुरस्कार में दे दिया , तब से खिमेल भी चाणोद के पट्टे में चला गया। लगभग २५० वर्षो के अटूट सम्बन्ध के कारन खिमेल तथा मेहता ( मुथा ) एक-दूसरे के पर्याय था पूरक बन गये। गोडवाड़ क्षेत्र में इसको लेकर एक कहावत प्रचलित हो गई - " खिमेल के मेहता , धणी गांव को वरो ( छोटा नाला ) तथा लास का भाकर ( पहाड़ ) ये तीन नहीं होते तो गोडवाड़ की औरते सोने की इंडोणी से पानी भारती " ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में आसपास के क्षेत्र में खिमेल के मेहताओ का बड़ा दबदबा था, तभी ऐसी कहावत प्रचलित हो गई। खिमेल ( सिंहवल्ली ) में वर्तमान में घर ओली ( हौती ) ६५० है व् करीब २००० जैनों की सख्या है। ग्राम पंचायत अनुसार गांव की ५००० की जनसंख्या में ३४ कौम आती है। बाली विधानसभा क्षेत्र के खिमेल में , ग्रामीण बैंक , दसवीं तक शिक्षा , हॉस्पिटल , दूरसंचार , जवाई बांध से सिंचाई व्यवस्था इत्यादि सारी सुविधएं उपलब्ध है। खिमेल से अनेक पुण्य आत्माओं ने संयम मार्ग को अपनाया है। गांव के निकट तीखा मंदिर में चारभुजा व बुठा मन्दिर में शिव विराजमान है। ठाकुरजी मंदिर के पास वि. सं. १८३६ की निर्मित बावड़ी व धर्मशाला है, जिसका निर्माण श्री मोकमसिंहजी मेहता द्वारा हुआ। नाड़ी की पाल पर अनेक सतियों की छत्रियां बनी हुई है। गांव के प्रवेश द्वारा पर स्थित श्री पंचमुखी हनुमानजी का मंदिर भी चमत्कारी है। इसकी प्रतिष्ठा दि. १४-४-२००६ को संपन्न हुई।
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